Sunday, 3 June 2012

दुश्मन


हमेशा   ही   लगे   हम   खेल  का  सामान  दुश्मन  को |
हमारा  क्यूँ  समझ  आया  नहीं  अरमान  दुश्मन  को ||

नहीं   है   बात   कोई   आज    की   सदियों    पुरानी  है |
बना   कर   दोस्त   पाले   है  सदा  इंसान   दुश्मन  को ||

पता  चल   भी  न   पायेगा  वो  कब  में  वार  कर   देगा |
हमारे   बीच   में   बैठा     ज़रा    पहचान    दुश्मन   को ||

ख़ुशी   में   दूसरों   की   उसको  आता  है   नज़र  मातम |
हसद  ने  एसा  करके  रख  दिया  हल्कान   दुश्मन  को ||

ख़बर   उसको   भी   रहती   है   तेरे   हर  इक   इरादे की |
समझ मत ख़ुद की जानिब से कभी अन्जान दुश्मन को ||

नज़ारें   रोज़   जन्नत  के    ज़मीं   पर   ही  नज़र  आते |
अगर  आता  ज़रा  सा   भी  समझ  ईमान   दुश्मन  को ||

किसी  को  मारने  से क़िब्ल  तू  ख़ुद  कितना मरता  है |
अरे   कोई   तो   समझा ले  मेरे   नादान   दुश्मन    को ||

अगर   तैयार    है    वो    हम   भी   तो  तैयार   बैठे  हैं |
सुना  दीजेगा  अब  तो  जाके  ये  फ़र्मान   दुश्मन   को ||

तेरे     हथियार   हैं    ‘सैनी’  फ़क़त  अच्छाइयां   तेरी |
जला  कर  ख़ाक  कर  देगी तेरी  मुस्कान  दुश्मन को ||

डा०  सुरेन्द्र  सैनी 
  

No comments:

Post a Comment