हमेशा ही लगे हम खेल का सामान दुश्मन को |
हमारा क्यूँ समझ आया नहीं अरमान दुश्मन को ||
नहीं है बात कोई आज की सदियों पुरानी है |
बना कर दोस्त पाले है सदा इंसान दुश्मन को ||
पता चल भी न पायेगा वो कब में वार कर देगा |
हमारे बीच में बैठा ज़रा पहचान दुश्मन को ||
ख़ुशी में दूसरों की उसको आता है नज़र मातम |
हसद ने एसा करके रख दिया हल्कान दुश्मन को ||
ख़बर उसको भी रहती है तेरे हर इक इरादे की |
समझ मत ख़ुद की जानिब से कभी अन्जान दुश्मन को ||
नज़ारें रोज़ जन्नत के ज़मीं पर ही नज़र आते |
अगर आता ज़रा सा भी समझ ईमान दुश्मन को ||
किसी को मारने से क़िब्ल तू ख़ुद कितना मरता है |
अरे कोई तो समझा ले मेरे नादान दुश्मन को ||
अगर तैयार है वो हम भी तो तैयार बैठे हैं |
सुना दीजेगा अब तो जाके ये फ़र्मान दुश्मन को ||
तेरे हथियार हैं ‘सैनी’ फ़क़त अच्छाइयां तेरी |
जला कर ख़ाक कर देगी तेरी मुस्कान दुश्मन को ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
No comments:
Post a Comment