Thursday, 31 May 2012

झूठा वादा


झूठा   वादा    करता    है |
क्या मिलने से  डरता  है ||

पहले    झगडे   करता  है |
फिर तू छुपता  फिरता है ||

जाने क्या-क्या लिखता है |
अखबारों   में   छपता   है ||

चूहे    जैसा    दिल    तेरा |
लड़ने  का  दम भरता  है ||

खोटा   है   तू  नीयत  का |
कुछ  पैसों  में बिकता है ||

साधू   उसको   कहते   हैं |
जो धरती पर  चलता  है ||

ऊंचा   उड़ने   वाला   ही  |
इक दिन नीचे गिरता है ||

धोखा  दे कर लोगों  को  |
उनके   सपने  ठगता है ||

लो  तुमको  बतलाता  हूँ |
‘सैनी’तुम  पर मरता  है ||

डा०  सुरेन्द्र  सैनी  


Tuesday, 29 May 2012

चाहता हूँ


 ज़माने  भर  की  बातें  भूल  जाना  चाहता  हूँ |
तेरी आग़ोश में कुछ  पल  बिताना  चाहता  हूँ ||

ज़माने ने दिए हैं ज़ख़्म  जो  उनकी  नमी  को |
तेरे  आँचल   के  साए   में  सुखाना चाहता  हूँ ||

किसी को शौक  है पाले ग़लतफ़हमी मुझे क्या |
मेरा  दिल  साफ़  है  सबको  बताना  चाहता  हूँ ||

न  दीजे  दाद  मुझको  लालसा  इसकी  नहीं  है |
फ़क़त नग़्मा  नया  सबको  सुनाना  चाहता  हूँ ||

तमन्ना  है तो  आकर  लूट  ले  जाओ  ये  सारी |
ख़ुदा से जो  मिली  शफ़क़त  लुटाना  चाहता  हूँ ||

मुझे  कहते  हुए  ये  फ़क़्र   है  मुझ  में  अना  है |
विरासत   मैं   बुज़ुर्गों   की   बचाना  चाहता  हूँ ||

नयी नस्लों में गर कुछ ख़ामियाँ आयें नज़र तो |
बता   कर  रास्ता   उनको  दिखाना   चाहता  हूँ ||

मुझे   मंजूर   है   भूखे   ही   सो   जाना  पड़े  तो |
निवाला   एक    ही   बेदाग़   खाना   चाहता   हूँ ||

सज़ा   दीजे   ख़ता   मेरी  अगर  है  कोई  बेशक |
ख़ता क्या है मैं तुम से   जान  जाना  चाहता  हूँ ||

बढाते  जा  रहे  हैं  लोग  दिल  के  फ़ासिलों  को |
मैं  उन ही फ़ासिलों  को  तो  मिटाना चाहता  हूँ ||

मुझे   अब   मौत  की  आहट  सुनाई  दे  रही  है |
सभी से  आज  मैं  मिलना  मिलाना  चाहता  हूँ ||

अगर मौक़ा  मिले  तो  ज़िंदगी  के  मुद्दओं   को |
ख़ुदा   के   रूबरू   हो   कर   उठाना   चाहता   हूँ ||

हँसा दूँ  आज ‘सैनी’ को  मैं  आँसूं  उसके  पोंछू  |
कमाई   है   यही   जिसको   कमाना  चाहता  हूँ ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Monday, 28 May 2012

क्या हक़ीक़त


क्या  हक़ीक़त  में  पीना   सरल  है |
जबकि   हर  घूँट  में  ही   गरल  है ||

संकुचित  हो  गया  वो  सिमट  कर |
वो  ही  व्यापक  हुआ  जो  तरल  है ||

गिर   के   कीचड   में   भी  मुस्कुराए |
जिसकी क़िस्मत में बनना कमल है ||

रोशनी   रोज़      सूरज    से    मांगे  |
चाँद   कहने   को  फिर भी धवल  है ||

उर्दू   हिन्दी    की    बातें    न  कीजे |
दिल  की  भाषा  तुम्हारी  ग़ज़ल  है ||

नेक  नीयत   उसूल  उसके   पक्के |
आदमी    वो    बड़ा    ही  सबल  है ||

आज़मा  लीजे    जब  जी  में  आये |
बात   पर   अपनी  ‘सैनी’अटल  है ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी  

Sunday, 27 May 2012

दर्द -ए -जुदाई


तेरा दर्द -ए -जुदाई यूँ तो मुझको सालता  हर  पल |
मगर चेहरा मेरा मुस्कान से रहता खिला हर  पल ||

ख़ुदा  जाने  तुम्हारे  प्यार  में  है  कौन  सी  ताक़त |
क़लम मेरा करे जो सामना ज़ुल्मात  का  हर  पल ||

मुझे   मालूम   है  मुश्किल  बड़ा  ये  काम  होता  है |
हंसी चेहरे पे रख कर दर्द दिल में  पालना  हर  पल ||

तेरी आग़ोश में गुज़रे जो उन लम्हों का क्या कहना |
तेरे दामन की ख़ुशबू में निहाँ है  ख़ुशनुमा  हर  पल ||

भटक कर सहरा में मैं अपनी मंज़िल को ही खो बैठा |
नहीं   है  दूर   तक   छाया  घटे  है  हौसला  हर  पल ||

उडी   है  नींद   आँखों  से  नहीं  दिल  में  सुकूँ  बाक़ी |
पता आख़िर चला होता है कैसा प्यार का   हर  पल ||

हक़ीक़त जानता ‘सैनी’मगर माने  नहीं  फिर  भी |
उसे ये शौक पीने का निगलता जा   रहा  हर  पल ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी   

Friday, 25 May 2012

अगर नाराज़ हम होते


तुम्हारे  पास  क्यूँ  आते  अगर   नाराज़ हम होते |
अकड़ के हम भी रह जाते अगर नाराज़ हम होते ||

बुरी बातें बुरे दिन याद  रख कर   हम   नहीं  जीते |
न हंस के तुमसे बतियाते अगर नाराज़  हम होते || 

हुई हैं ग़लतियाँ हमसे ये  हम  तस्लीम   करते  हैं |
क्यूँ इतना आज पछताते अगर नाराज़  हम होते || 

बताओ  क्या  कमी  देखी  हमारे  प्यार  में   तुमने |
ये  नज़राना  ही क्यूँ  लाते  अगर नाराज़ हम होते || 

सज़ा बिन ज़ुर्म  के भुगती बचा के तुमको  रक्खा है |
सज़ा तुमको भी  दिलवाते  अगर नाराज़ हम  होते || 

हवा पे सब का हक़ है जान कर घर की तेरे खिड़की  |
न  अपनी  सम्त  खुलवाते अगर  नाराज़  हम होते || 

बुलाता  है नहीं ‘सैनी’को  जब  कोई भी महफ़िल  में |
तो फिर क्यूँ हम भी बुलवाते अगर नाराज़ हम होते || 

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Tuesday, 22 May 2012

ज़ह्र के पियाले



आज भी लोग हैं दुन्या  में  रिज़ाले कितने |


छीन लेते  हैं जो बच्चों से निवाले  कितने || 


एक भी तो न फ़लक पार गया है अब तक |  


रोज़  पत्थर तो  हवा  में हैं उछाले कितने ||                                     


यूँ न ख़ुश होगा  ख़ुदा  उसको  रिझा ने वालो |


मस्जिदें आप बनालें या कि शिवाले कितने ||

लोग इस धरती पे क्या फिर से वो पैदा होंगे |


बाँट  दुन्या  को  गए देख   उजाले   कितने ||


झाँक  कर देख तू दामन में कभी अपने भी |


नुक़्स तो रोज़  सभी में तू निकाले कितने || 


इश्क  में मैं भी कभी  पीछे न  हटने वाला |


हुस्न  नख़रे तू मुझे रोज़  दिखाले कितने ||

एक  सच्चाई के  बदले  में   बेचारा ‘सैनी’|  


पी गया ज़ह्र से लबरेज़   पियाले कितने ||




 रिज़ाले .....कमीने ,दुष्ट

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Sunday, 20 May 2012

नाता जोड़ ज़रा


अपनी ज़िद को छोड़ ज़रा |
मुझसे  नाता  जोड़   ज़रा ||

बेदारी    को   रोक    रही |
वो   जंजीरें    तोड़   ज़रा ||

मोती चुनना  चाहता   है |
तो घुटनों को  मोड़ ज़रा ||

सीधे -सीधे   बात    बता |
नुक़ता–चीनी  छोड़ ज़रा ||

दामन के दिख  दाग रहे |
मोटी  चादर  ओढ़  ज़रा ||

इस दारू में  ज़ह्र  मिला |
सारी बोतल  फोड़ ज़रा ||

खैरातों  का  दौर  चला |
‘सैनी’तू  भी  दौड़ ज़रा ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Thursday, 17 May 2012

ए दोस्त


ए  दोस्त  मेरे  पास  आ  अब  दम निकल रहा |
फिर गीत कोई गुनगुना अब दम  निकल  रहा || 

जिसकी  तलाश   में   रहा  हूँ   मैं   तमाम   उम्र |
उसको कहीं से भी दो बुला अब दम निकल रहा || 

शिक़वे गिलों का  सिलसिला  चलता  रहा  सदा |
आ जा कि यार क्या गिला अब दम निकल रहा || 

जाने नज़र क्यों आपसे मिल कर न मिल सकी |
आँखों में  झाँक  ले ज़रा  अब  दम   निकल रहा || 

तेरी    इनायतों    का    वो   कायल    रहा  सदा |
‘सैनी’ को  तू  गले   लगा  अब दम निकल रहा || 

डा० सुरेन्द्र  सैनी 
  

Wednesday, 16 May 2012

बताऊँ क्या किसी को


बताऊँ क्या किसी को रोज़ मुझ पे  क्या  गुज़रती  है |
कभी तदबीर बिगड़े  है  कभी  क़िस्मत  बिगडती  है ||

शरीफों की किसी बस्ती  में छोटे  घर की ख़्वाहिश  है |
मगर जिस सम्त भी देखो  गुनाहगारों  की  बस्ती  है ||

तुझे भी इल्म -ओ -फ़न से जब नवाज़ा है ख़ुदा ने फिर |
तरक्क़ी   ग़ैर   की   आँखों   में  तेरी  क्यों खटकती  है ||

समझ  लो  इश्क़ में  इक ज़लज़ला सा  आने वाला  है |
किसी कमसिन की आँखों में शरारत जब झलकती है ||

मुअम्मा   बन   गयी   है  आपकी   चुप्पी  झमेला सा |
हर इक इंसान की उंगली  मेरी  जानिब ही  उठती  है ||

तुम्हारे हुस्न की तारीफ़  में  ख़ुद  ही  क़लम  चलता |
हक़ीक़त है यही इसमें मेरी  कुछ  भी  न  ग़लती  है ||

अभी साँसें हैं कुछ बाक़ी   दिल -ए -बीमार   की  तेरे |
चले आओ -चले आओ कि इक - इक सांस घटती है ||

घड़ी   को   देखते   ही   देखते   ये   दिन  गुज़रता  है |
मगर रातों की तन्हाई  मुझे  नागिन  सी  डसती  है ||

कभी तो हाल पूछा   होता  ‘सैनी ’का   यहाँ  आकर |
वो तुमसे प्यार करता है यही बस उसकी ग़लती है ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Monday, 14 May 2012

मेरे सरकार


मुझसे कतरा के आज  निकले  क्यूँ | 
मेरे   सरकार    इतने     बदले  क्यूँ ||

ख़ूब     खाते     हैं       ख़ूब   पीते  हैं |
कुछ मरज़ है नहीं  तो   दुबले   क्यूँ ||

मैं    ख़तावार    जब    नहीं      तेरा |
रोज़  होते  हैं   मुझ  पे  हमले  क्यूँ ||

शाख़ पर ही तो गुल  की  क़ीमत  है |
लोग फिर इन गुलों को  मसले क्यूँ ||

जब  भी  बातें  चले   सदाक़त  की |
तेरे   चेहरे   का    रंग   बदले  क्यूँ ||

मेरी    आँखों   में  रोज़  खटके  है |
तेरे कपडे ही  इतने    उजले  क्यूँ ||

इक ग़ज़ल पर जो दाद  दी उसने |
यार‘सैनी ‘तू इतना  उछले  क्यूँ ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी