Tuesday, 22 May 2012

ज़ह्र के पियाले



आज भी लोग हैं दुन्या  में  रिज़ाले कितने |


छीन लेते  हैं जो बच्चों से निवाले  कितने || 


एक भी तो न फ़लक पार गया है अब तक |  


रोज़  पत्थर तो  हवा  में हैं उछाले कितने ||                                     


यूँ न ख़ुश होगा  ख़ुदा  उसको  रिझा ने वालो |


मस्जिदें आप बनालें या कि शिवाले कितने ||

लोग इस धरती पे क्या फिर से वो पैदा होंगे |


बाँट  दुन्या  को  गए देख   उजाले   कितने ||


झाँक  कर देख तू दामन में कभी अपने भी |


नुक़्स तो रोज़  सभी में तू निकाले कितने || 


इश्क  में मैं भी कभी  पीछे न  हटने वाला |


हुस्न  नख़रे तू मुझे रोज़  दिखाले कितने ||

एक  सच्चाई के  बदले  में   बेचारा ‘सैनी’|  


पी गया ज़ह्र से लबरेज़   पियाले कितने ||




 रिज़ाले .....कमीने ,दुष्ट

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

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