आज भी लोग हैं दुन्या में रिज़ाले कितने |
छीन लेते हैं जो बच्चों से निवाले कितने ||
एक भी तो न फ़लक पार गया है अब तक |
रोज़ पत्थर तो हवा में हैं उछाले कितने ||
यूँ न ख़ुश होगा ख़ुदा उसको रिझा ने वालो |
मस्जिदें आप बनालें या कि शिवाले कितने ||
लोग इस धरती पे क्या फिर से वो पैदा होंगे |
बाँट दुन्या को गए देख उजाले कितने ||
झाँक कर देख तू दामन में कभी अपने भी |
नुक़्स तो रोज़ सभी में तू निकाले कितने ||
इश्क में मैं भी कभी पीछे न हटने वाला |
हुस्न नख़रे तू मुझे रोज़ दिखाले कितने ||
एक सच्चाई के बदले में बेचारा ‘सैनी’|
पी गया ज़ह्र से लबरेज़ पियाले कितने ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
No comments:
Post a Comment