बताऊँ क्या किसी को रोज़ मुझ पे क्या गुज़रती है |
कभी तदबीर बिगड़े है कभी क़िस्मत बिगडती है ||
शरीफों की किसी बस्ती में छोटे घर की ख़्वाहिश है |
मगर जिस सम्त भी देखो गुनाहगारों की बस्ती है ||
तुझे भी इल्म -ओ -फ़न से जब नवाज़ा है ख़ुदा ने फिर |
तरक्क़ी ग़ैर की आँखों में तेरी क्यों खटकती है ||
समझ लो इश्क़ में इक ज़लज़ला सा आने वाला है |
किसी कमसिन की आँखों में शरारत जब झलकती है ||
मुअम्मा बन गयी है आपकी चुप्पी झमेला सा |
हर इक इंसान की उंगली मेरी जानिब ही उठती है ||
तुम्हारे हुस्न की तारीफ़ में ख़ुद ही क़लम चलता |
हक़ीक़त है यही इसमें मेरी कुछ भी न ग़लती है ||
अभी साँसें हैं कुछ बाक़ी दिल -ए -बीमार की तेरे |
चले आओ -चले आओ कि इक - इक सांस घटती है ||
घड़ी को देखते ही देखते ये दिन गुज़रता है |
मगर रातों की तन्हाई मुझे नागिन सी डसती है ||
कभी तो हाल पूछा होता ‘सैनी ’का यहाँ आकर |
वो तुमसे प्यार करता है यही बस उसकी ग़लती है ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
No comments:
Post a Comment